अर्थ शब्दों में नहीं तुम्हारे भीतर है Not What the Words…

अर्थ शब्दों में नहीं तुम्हारे भीतर है

मैं बारिश में शब्दों को सुखाता हूँ
 
और एक दिन उनकी सफ़ेदी ही बचती है
जगमगाता है बरामदा शून्यता से
फिर मैं उन्हें भीतर ले आता हूँ
 
वे गिरे हुए छिटके हुए क़तरे जीवन के
उन्हें चुन जोड़ बनाता कोई अनुभव
जिसका कोई अर्थ नहीं बनता
बिना कोई कारण पतझर उनमें प्रकट होता
बाग़ की सीमाओं से टकराता
कोई बरसता बादल,
दो किनारों को रोकता कोई पुल उसमें
आता जैसे कुछ कहने,
अक्सर इस रास्ते पर कम ही लोग दिखते हैं
यह किसी नक़्शे में नहीं है
कहीं जाने के लिए नहीं यह रास्ता,
बस जैसे चलते-चलते कुछ उठा कर साथ लेते ही
बन पड़ती कोई दिशा,
 
जैसे गिरे हुए पत्ते को उठा कर
कि उसके गिरने से जनमता कोई बीज कहीं
 
(धूप के अँधेरे में, 2008)
 

Not What the Words…

I dry out words in the rain
until one day all that is left
is whiteness. The verandah dazzles
with emptiness, so I take them back in.
 
These are the fallen, scattered shards of life.
I pick them up and fit them all together
to make a pattern whose meaning can't be made out,
though in autumn
the leaves still fall in their season.
 
A rainy cloud hits
the edges of the garden,
and a bridge that has held apart
two riverbanks
comes in as if to speak.
 
As a rule few people travel this road.
It features on no map,
this road that leads nowhere.
But when, out for a walk, I pick something up,
the track appears: just as, when a leaf falls,
a seed somewhere is born out of that falling.
 
7.11.2005
From Dhoop ke Andhere men, In the Darkness of the Sun
 
 
 

Original Poem by

Mohan Rana

Translated by

Lucy Rosenstein with Bernard O’Donoghue Language

Hindi

Country

India